इन दिनों सोशल मीडिया और यूट्यूब पर प्रेमानंद महाराज के बयानों की खूब चर्चा हो रही है। उन्होंने हाल ही में अपने प्रवचनों में उन बाबाओं और कथावाचकों की आलोचना की, जो चमत्कारी उपायों से गंभीर बीमारियों के इलाज का दावा करते हैं। महाराज ने खुद को उदाहरण बनाकर कहा, “मेरी दोनों किडनियां फेल हैं और मैं डायलिसिस पर हूं, लेकिन कोई कहे कि कलावा बांधने या मंत्र पढ़ने से मैं ठीक हो जाऊंगा, तो मैं ऐसे सभी लोगों को विश्वभर में चुनौती देता हूं।
उपचार नहीं, अध्यात्म को बनाया मार्ग
प्रेमानंद महाराज ने यह भी स्पष्ट किया कि उन्होंने कभी चमत्कारी उपायों की बात नहीं की, बल्कि उन्होंने अध्यात्म को अपना जीवन मार्ग बनाया है। वह राजनीति, धर्म और सामाजिक मुद्दों पर कभी विभाजनकारी टिप्पणी नहीं करते। उनके अनुसार, किसी भी रोग का इलाज केवल योग्य डॉक्टर और उचित चिकित्सा से ही संभव है। वे कहते हैं, अगर किसी डॉक्टर की दवा मुझ पर असर नहीं करती, तो इसका अर्थ यह नहीं कि उपाय से इलाज संभव है।
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विश्वास और अध्यात्म की शक्ति पर जोर
हालांकि प्रेमानंद महाराज चमत्कारी उपायों को नकारते हैं, लेकिन वे भक्ति और विश्वास की शक्ति को अवश्य स्वीकार करते हैं। उन्होंने कथा के माध्यम से बताया कि जब भक्त पूरी श्रद्धा से भगवान में विश्वास करता है, तब उसे अलौकिक अनुभव हो सकते हैं। उनका मानना है कि भक्ति तभी सार्थक होती है जब उसमें संपूर्ण समर्पण हो।
विकास बनाम आस्था: क्या वाकई फर्क पड़ता है?
एक अन्य चर्चा में सवाल उठा कि चीन और अमेरिका जैसे देश, जहां धार्मिक विश्वास कम है, वो विकसित क्यों हैं? वहीं भारत और यूरोपीय धार्मिक राष्ट्र पीछे क्यों हैं? इस पर स्पष्ट विचार रखा गया कि यह नजरिया सोच पर आधारित है। किसी राष्ट्र का विकास केवल आस्था से नहीं, बल्कि शिक्षा, नीति और समाज के समन्वय से होता है। हालांकि, कुछ लोगों की राय में “एक लोटा जल ही सभी समस्याओं का समाधान” है।
भाव प्रधान है, साधन नहीं
अंत में सवाल आया कि शिवजी को चढ़ाया जाने वाला जल आरो का हो या टंकी का? जवाब मिला – जल कोई भी हो, भाव शुद्ध होना चाहिए। भक्ति में साधन नहीं, भावना महत्वपूर्ण होती है। प्रेमानंद महाराज के विचार स्पष्ट हैं आस्था, ज्ञान और तर्क का संतुलन ही सच्चा अध्यात्म है।
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